अधूरी परछाइयाँ
- Legal Services GNLU
- May 16
- 1 min read
Updated: Jun 9
By Pratiksh Sharma
दिन चढ़ने से पहले जगती कहानियाँ,
रात ढलने तक बुझती अधूरी परछाइयाँ।
ख्वाब आँखों में और दर्द हथेलियों पर,
ये वो लोग हैं, जो खो जाते हैं भीड़ के उस पार।
ठेले से ऐप तक की ये नई परिभाषाएँ,
श्रम का रूप बदला, पर स्थितियाँ पुरानी हैं।
कोई बीमा नहीं, कोई वादा नहीं,
बस जीवन का संघर्ष है, जो सदा वही है।
क्या वो इंसान नहीं, जो दिन-रात झुकते हैं?
क्या उनका पसीना मूल्यहीन गिरता है?हर कॉल,
हर डिलीवरी, हर क्लिक के पीछे,
छिपी हैं कहानियाँ, जो सुनाई नहीं देतीं।
सवाल यह नहीं कि कौन क्या करता है,
सवाल यह है कि हम उन्हें क्या देते हैं।क्या सुरक्षा,
क्या सम्मान, क्या अधिकार,
या सिर्फ एक और ‘श्रमिक’ का लाचार उपहास?
चलो बदलें ये अधूरी परछाइयाँ,
उन्हें रोशनी दें, पहचान दें, आशाएँ दें।
हर प्लेटफ़ॉर्म, हर गली, हर चौक में,
इंसान की गरिमा का अधिकार लौटाएँ।
जहाँ श्रम का सम्मान हो, श्रमिक का नहीं शोषण,
जहाँ हर काम हो बराबर, हर इंसान हो महत्वपूर्ण।
क्योंकि यह केवल काम की बात नहीं,
यह इंसानियत की बात है।
चलो, ऐसी इबारत लिखें,
जो हर परछाई को मुकम्मल कर दे।
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